‘तंत्र ’ तो रंगीनियों में मस्त
है ,
‘लोक’ है बदहाल ,बेहद पस्त है .
तन भले ही हो गया सन्यस्त है ,
मन विकारों से अभी तक ग्रस्त है
.
खुद से मिलने की नहीं फुर्सत
उसे ,
आज का हर व्यक्ति इतना व्यस्त
है .
देखकर कीमत न चौंकें मान्यवर ,
इसमें ‘सुविधा-शुल्क’ भी
विन्यस्त है .
रहनुमाओं लूट लो जी भर इसे ,
देश इसका हो चुका अभ्यस्त है .
‘शम्स’ की आँखों में सपने हैं
अभी ,
वो नए कल के लिए आश्वस्त है .
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