रविवार, 8 अप्रैल 2012

मेरे लिए देह मुक्ति हथियार भी है और औजार भी देह की आदिम कंदराओं में बसी गंध की ग्लोबल मांग को जान लिया है मैंने

मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
दुनिया के सारे मर्दों
मुझे इर्ष्या है तुम्हारे मर्दानेपन से
प्रणय की सघन रातों में
अब कोई पुरुषत्व
मेरे स्त्रीत्व को सम्मानित नहीं करता
मिलन का मधुमास
अब मेरे अन्तस् में
कोई रातरानी नहीं खिलाता
न ही बहता है
कहीं कोई अनुराग का झरना
दुनिया के सारे मर्दों सुनो
जब किसी मर्द की
साँसों का उच्छ्वास
मेरे करीब आता है
तो मैं भर उठती हूँ
एक विद्रोह से .
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मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
पीला पड़ गया है मेरी आँखों में
प्रकृति का हरापन
सूखे पत्तों की खरखराहट के बीच
अब कहीं सम्वेदना का स्वर
सुनाई नहीं पड़ता
मैंने अपनी आँखों की नमी को
समेट लिया है एक डिबिया में
और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां
कतार में खड़ी हैं
इस पर अपना टैग लगाने को
एक भरा-पूरा
बाजार खड़ा है खरीदने को
जागी हुई स्त्री के दुर्लभ आंसू
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मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
अपनी बौद्धिक कुंठाओं को
साहित्य-संस्कृति का रंग-रोगन चढ़ाकर
बेच लेने का हुनर आता है मुझे
मेरे द्वारा रचे
स्त्री-विमर्श के वितान तले
मेरी तरह की ही तमाम
कुंठित-दमित आत्माएं
अपनी हुआ-हुआ को
आत्ममुग्ध होकर
वाह-वाह में तब्दील करती हैं
और फिर खुश होकर
अपनी ही पीठ
थपथपाती चली जाती हैं
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मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
मेरे लिए देह मुक्ति
हथियार भी है और औजार भी
देह की आदिम कंदराओं में बसी
गंध की ग्लोबल मांग को
जान लिया है मैंने
या यूँ कहें कि
जानती तो पहले भी थी
पर अब इस मांग के बरक्स
मैंने आपूर्ति का
उत्तर आधुनिक प्रबंधन भी सीख लिया है
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मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
प्रेम,दया , ममता ,सहानुभूति ,
करुणा , शील , लज्जा
अब नहीं हैं मेरे शृंगार
मैंने बदल दिए हैं
सौंदर्य के प्रतिमान
और बहुत कुछ अपनी पहचान
महंगे स्पा में निखरती

महमहाती देहयष्टि
अब मुझमें भरती है आत्मविश्वास
ताकि मैं बन सकूँ
इस मरदाना समाज में
एक नए किस्म की मर्द
मैं एक तथाकथित
जागी हुई स्त्री हूँ
मैं अपने आप से
भागी हुई स्त्री हूँ
        डॉ. दिनेश त्रिपाठी शम्स

सोमवार, 26 मार्च 2012

पाहन में प्यार बसाने वाले मूर्ख हुआ करते हैं


धवल चांदनी यहाँ कि जैसे उतर आई हो धरती पर ,
और सौंदर्य की प्रतिमा शाश्वत ज्यों साकार हुई हो .
देवों का सारा ही वैभव यहाँ हुआ नतमस्तक है ,
अनुपम इसके आगे जैसे उपमानों की हार हुई हो .
यमुना के बहते जल में जब ताजमहल की छवि पड़ती है ,
लगता है कि दुग्ध-धवल –सी कोई अप्सरा नहां रही हो .
आकर्षण का एक जाल जो अपने चारों ओर बुन रही ,
सम्मोहन में बाँध-बाँध कर ह्रदय-ह्रदय को बुला रही हो .
प्रिया-वियोग से पीड़ित होकर भग्न ह्रदय राजा ने ,
संगेमरमर पर लिखवाई अपनी प्रेम-कहानी .
शाहजहाँ की ह्रदय-स्वामिनी लीन यहाँ चिर-निद्रा में ,
कहते हैं की ताजमहल है अमर प्रेम की अमर निशानी .
ताजमहल के पाहन में मुमताज महल की यादें हैं ,
ताजमहल के पाहन में तो शाहजहाँ का प्यार बसा है .
और कहा जाता है यह भी ताजमहल बनवा करके ,
शाहजहाँ ने प्यार शब्द को रूप दिया है , अर्थ दिया है .
किन्तु प्यार तो अंतरतम के गहन –लोक में बसता है ,
स्मृतियाँ भी सदा बसा करती हैं मन-आँगन में ,
भला प्यार का जड़ता से क्या नाता हो सकता है ,
प्यार चेतना का आधार रहा सदा जीवन में .
पाहन में प्यार बसाने वाले मूर्ख हुआ करते हैं ,
शाहजहाँ भी मूर्ख कि जिसने पाहन में प्यार बसाया है .
कौन भला कहता कि उसने हँसी उड़ाई रंकों की ,
सच तो यह है उसने खुद अपना मजाक उड़ाया है .
एक बादशाह जो शोषक था समता का प्रबल विरोधी ,
यह ताजमहल उस शोषण की अब भी दे रहा गवाही है .
भले राष्ट्र की शान बना यह वर्षों बाद भी चमक रहा है ,
लेकिन इसके उजलेपन के पीछे सिर्फ सियाही है .