कविता :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
साजिश
मेरी हत्या हो गयी
हां यह मैं कह रहा हूं
कि मेरी ह्त्या हो गयी है
यह मैं पूरे यकीन
और तथ्यों के आधार पर कह रह हूं
कि मारा गया है मुझे
बेहद निर्ममता से
तिल-तिल कर तड्पाया गया है मुझॆ
मैं गवाह हूं अपनी हत्या का
और कहीं भी , किसी को
भी
हाजिर नाजिर मानकर
दे सकता हूं गवाही
मगर मैं चुप हूं
क्योंकि मैं जानता हूं
कि हत्यारे के साथ-साथ
वे सब भी अपराधी हैं
जिन्होने प्रत्यक्ष या परोक्ष
साथ दिया है इस कॄत्य का
और अब मुझॆ य़ॆ स्वीकार करते हुये
बेहद अफ़सोस हो रहा है
कि मैं खुद शामिल था
अपनी ही हत्या की साजिश में .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
समायोजन
उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध
ऊंची आवाज में नारे लगाये ,
सभायें की , भाषण दिये
व्यवस्था को बदल डालने का आह्वान किया
लोगों में उनकी छवि बनी
वे पसन्द किये जाने लगे
उनका संघर्ष लगातार चलता रहaaak
जब-तक वे खुद
उस व्यवस्था में
समायोजित नहीं कर लिये गये
अब उनकी कमान किसी और ने संभाल ली है
+++++
कैक्टस
जिन्दगी के गांव में
उग आये हैं
कैक्टस बहुत सारे
पर नहीं है समय कि
देखे कोई , समझे कोई
या करे कोशिश समझने की
कि नहीं है आदमी पत्थर
या हमारी चेतना
नहीं है बंजर
कैक्टस शॊभा हमारे ड्राईंगरूमों की,
कृतिम उद्यानों की
पर नहीं बन सकता कभी
श्रुंगार हमारी चेतना ,
संवेदना का
अफ़सोस ! यही तो हो रहा है.
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
सापेक्षता
सापेक्षता के सापेक्ष
निरपेक्षता आकर्षक है,
सम्मोहक है
और आसान भी है निरपेक्ष होना
नहीं जुडी है क्योंकि इसके साथ
सरोकार की कोई बोझिल शर्त
संपृक्तता का बोझ लादकर चलना
आसान काम नहीं है
हर ठोकर पर गिरने का डर बना ही रहता है
संवेदना की कीमत पर मिलती है सापेक्षता .
पर कौन है जो चुकाये इतनी बडी कीमत
इसलिये आसान है निरपेक्ष होना .
++++++++
प्यार का सूत्र
प्यार में प्यार जोड़ो ,
प्यार में प्यार घटाओ ,
प्यार का प्यार से गुणा करो ,
या फिर प्यार को प्यार से भाग दे दो .
हर बार बचता सिर्फ प्यार ही है .
प्यार के गणित का आखिर ये कौन – सा सूत्र है ?
क्या आप जानते हैं ?
++++++++
डा.
दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
विष बुझी जब-जब हवायें चल पड़ीं ,
डाल से गिरने लगीं तब पत्तियां .
खूंटियों पर स्वार्थ के
लटकी हुई ,
छ्द्मवेशी आस्थायें डोलतीं
हैं .
लाभ हो या हानि लेकिन तुला
पर ,
स्वयं को संवेदनायें तोलतीं
हैं .
है समय के कक्ष में फिर से घुटन ,
बन्द सारे द्वार सारे खिड़कियां
है यहां कुछ शेष पैनापन अभी ,
सृजन की मिटती-मिटाती धार
में .
दर्द की स्मारिकायें छाप कर ,
बेचते हैं लोग अब बाज़ार में
.
खूबसूरत जिल्द से भीतर छपी ,
अर्थ अपना पूछ्ती हैं पंकितयां .
सांस लेकर कैक्टस की छांव
में ,
ज़िन्दगी अब प्रगतिवादी हो
गयी है .
किन्तु सूनापन अखरता है
बहुत ,
जैसे कोई चीज़ अपनी खो गयी
है .
बिन पढ़े ही देखिए फेंकी गयीं ,
डस्टबिन में प्यार की सब चिट्ठियां .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
मुट्ठी से फिसला समय ,
मौसम ने बदली है चाल .
हर दिन ने लिखी जो कथा ,
रात उसे बाँचती रही .
नयनों के रंगमंच पर ,
बस पीड़ा नाचती रही .
हर संध्या छोड़ गयी है ,
अनसुलझे अनगिनत सवाल .
आशाएं बाँझ हो गयीं ,
उतर गया जो भी था ज्वार .
जीवन की भाग-दौड़ में ,
कौन करे सोलह सिंगार .
दुनिया के दाँव-पेंच ने ,
कुतर दिए सपनों के जाल
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
कितना बहा
आँख का पानी मत पूछो .
विगत वर्ष की
राम कहानी मत पूछो .
किसके सपने
टूटे अपने रूठे क्यों ,
किसकी बूढ़ी
हुयी जवानी मत पूछो .
जो कुछ बीता भूलें हम तुम दोनों ही ,
बांटो आकर हर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है
नहीं रुका है
समय कभी वह सिर्फ चले .
बदल-बदल कर
रूप छला है और छले .
उसी समय के
नए रूप तुम भी तो हो ,
जिसमें
सृष्टि पली है जिसमें प्रलय पले.
तुम हो जीवन मृत्यु तुम्हीं उत्थान-पतन ,
तुम्हीं शान्ति-संघर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
यह तो मनुज
स्वभाव तृप्ति से दूर रहा .
तुम आये तो
वही पुरातन प्यास जगी .
कुछ खट्टा
कुछ मीठा होता है जीवन में ,
तुम केवल
मीठे होगे ये आस जगी .
इसी आस को नव गति दो नव संबल दो ,
हो सबका उत्कर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
टुकड़ा भर व्योम चाहिए ,
मुट्ठी भर धूप के लिए .
आलम्बन ढूंढती रही ,
एकाकी ज़िंदगी यहाँ .
यौवन के सभी प्रश्न पर ,
संयम का मुँह धुँआ-धुँआ .
प्यार की फुहार चाहिए
,
कुम्हलाये रूप के
लिए .
साँस-साँस लग रही
है अब ,
दंश चिर अतृप्त
प्यास का ,
स्वप्न जो उधार
ले गए ,
दे न सके ब्याज
आस का .
भावना का नीर
चाहिए ,
सूख चुके कूप के
लिए .
अनुभव के घर में
हुआ ,
अनचाही पीर का
निवास ,
और जाने कब बन गई
,
अन्तरंग,
अतिघनिष्ठ ,खास .
दृष्टि में सुधार
चाहिए ,
हर इक विद्रूप के
लिए .
गीत :
जबसे तुमको देखा
तबसे ,
कविता करना भूल
गया मैं .
उपमा से तुम परे
तुम्हारी ,
क्या दूँ मैं
उपमा .
शब्द नहीं तारीफ़
करूँ कुछ ,
करना मुझे क्षमा
.
दृग की भाषा पढ़
शब्दों की
भाषा पढ़ना भूल
गया मैं .
दृष्टि कहीं भी
डाली तो बस ,
तेरा रूप दिखा .
जब-जब कलम उठाया
मैंने ,
तेरा नाम लिखा .
ढाई आखर गढ़कर
बाकी ,
सब कुछ गढ़ना भूल
गया मैं .
तुमको चाहूँ
तुमको पाऊं ,
चाह रही मन में .
तुम मधुऋतु बनकर
आ जाओ ,
मेरे आँगन में .
लेकिन भेंट हुई
तो मन की ,
बातें कहना भूल
गया मैं .
अभिलाषाएं
निकालते हुए कभी-कभी
गूढ़ अर्थ डूब
जाने वाले
उन विचारों का
जो बने हैं पीड़ा
और
ज़ख्मों के स्थायी
मिलन से
मिल जाती है इससे
अनुभूति को
अभिव्यक्ति
ले जाने के ले
आंसुओं के उस
संसार में
जहां टूटती रहती
हैं
अभिलाषाएँ
ये अभिव्यक्ति
उदास करती है
उस ह्रदय को
जो पला-बढ़ा है
इन्हीं अभिलाषाओं
की गोद में
कब तक बनोगी तुम
अहिल्या
कि जब चाहे कोई
गौतम
बना दे तुम्हें
पत्थर
कब तक बनोगी तुम
सीता
कि जब चाहे कोई
मर्यादा परुषोत्तम
भेज दे तुम्हें वन
पथ पर
जानती हो आज के
युग में
नहीं मिलेगा
तुम्हें कोई राम और वाल्मीकि
अगर तुम चाहती हो
कि
पा सको अपनी
गरिमा
तो अब खुद जगाना
होगा
तुम्हें अपने
सामर्थ्य को
ज़िंदगी के गाँव
में अब ,
बढ़ गयी कितनी
घुटन है .
है व्यथा का कर्ज इतना ,
साँस तक गिरवी
पड़ी है .
त्रासदी सबके लिए
अब ,
एक सुरसा-सी खड़ी है .
यक्ष-प्रश्नों की तरह
अब ,
हो गया जीवन-मरण है .
भोगता संत्रास
आँखों –
में सुनहरे
स्वप्न लेकर .
पूर्ण आशा हो न
पायी ,
बन्धु सारी उम्र
देकर .
आदमी के वास्ते –
जैसे गरल का आचमन
है .
फूल भी अब लग रहे
हैं खार ,
शीत की कुछ यूँ
पड़ी है मार .
दिन हुए बौने
बहुत अब प्यार के ,
नफरतों की रात
लम्बी हो गई .
हर तरफ़ कुहरा घना
छाया हुआ ,
रोशनी जैसे तिमिर
में खो गई .
जिन्दगी को बन्द
कमरे में ,
धूप की सम्वेदना
से प्यार .
चेतना की देह में
ठिठुरन बढ़ी ,
जब सृजन की आग
ठण्डी पड़ गई .
फिर तमाचा आदमी
के गाल पर ,
स्वार्थ की पछुआ
हवा है जड़ गई .
आज के काँपते हाथ
पर ,
बन्धु कल के आगमन
का भार .
आस्था का शाल
चिथड़ा हो गया ,
फट गया स्वेटर
सहज विश्वास का .
जब पहन करके इसे
निकला समय .
सिर्फ कारण ही
बना उपहास का .
अब तो बस है शेष
नंगापन ,
हम जिसे ही मान
लें अधिकार .
खत्म समिधा हुई
सब हवन के लिए ,
देवता रुष्ट हैं
स्तवन के लिए .
सिन्धु मन्थन से
निकले रतन तो मगर .
लोग
संतुष्टि से ही रहे बेखबर .
सुर-असुर, स्वार्थ-परमार्थ का ये
समर .
चाहते सब सुधा पी
के होना अमर .
साथ अमृत के
निकला गरल क्या करें ,
कोई भी शिव नहीं
आचमन के लिए .
अश्रु ही पीर के
मात्र उपचार हैं .
अश्रु ही नैन के
श्रेष्ठ श्रृंगार हैं .
अश्रु ही दोस्त
आनन्द आधार हैं .
आँसुओं के बिना
जन्म बेकार है .
अश्रु इतना बहे
प्राण पथरा गए ,
अश्रु लाएँ कहाँ
से नयन के लिए .
अपनी संस्कृति का
होने लगा है क्षरण .
भर गया है
प्रदूषण से वातावरण .
खुश हुए ओढ़कर
पश्चिमी आवरण .
ताल सुर राग लय
सब हुए संस्मरण .
क्या है अनहद
किसी को पता भी नहीं ,
भाव भी शून्य
लगते भजन के लिए .
जिन्दगी अब हाशिए
पर आ गई है .
शब्द सारे खो
चुके हैं अर्थ अपना .
सत्य का आभास
केवल एक सपना .
सार्थकता सृष्टि
की होगी भला क्या ,
दूर जब औचित्य से
हर एक रचना .
सृजन की सम्वेदना
घबरा गई है .
लड़ रही है भावना
खुद से निरन्तर .
बढ़ गया है बुद्धि-मन के बीच अन्तर .
लग गए सन्दर्भ
रिश्तों के बदलने ,
शून्य भर ही रह
गया विश्वास घटकर .
हर जगह पर
त्रासदी ही छा गई है .
पीर की अनुभूति
को ढोने लगे हैं .
याचना के स्वर
मुखर होने लगे हैं .
फूल का अस्तित्व
संकट में पड़ा है ,
शूल केवल सबके सब
बोने लगे हैं .
नेह सिंचित हर लता मुरझा गई है .
नौ दो ग्यारह , दो-दो चार ,
आदर्शों को ठोकर
मार .
गम हो लेकिन आह न
कर .
अपनेपन की चाह न
कर .
केवल अपनी तान
सूना ,
दुनिया की परवाह
न कर .
मक्कारों की इस
दुनिया में ,
तू भी अब हो जा
मक्कार .
कैसा न्याय कहाँ
की यारी .
लाठी है तो भैंस
तुम्हारी .
लूट रहे है सभी
यहाँ पर ,
लूट मची है , लूटो भारी .
सच की कोई पूछ
नहीं है ,
करो झूठ का अब व्यापार
.
जिससे मिल बस
हंसकर मिल .
हाथ मिला पर मिला
न दिल .
धमा-चौकड़ी खूब मचा ,
जमी रहे तेरी
महफ़िल .
दुनिया की तू
हँसी उड़ा ,
रोना-गाना है बेकार .
प्यार और कुछ
नहीं ,
मौका है ठिकाना
है .
भटकन के बीच कहीं
,
ठहर-ठहर जाना है .
नींद की
प्रतीक्षा में ,
जागता बिछौना है .
प्यार वर्जनाओं
में ,
उन्मुक्त
होना है .
बिना मोल देना है
,
बिना मोल पाना है
.
याचना के हाथों
में ,
प्यार एक खजाना
है .
कहना है सुनना है
,
दिल को समझाना है
.
खुद को भूल जाने
का ,
प्यार एक बहाना
है .
अच्छा नहीं है
बुद्धिहीन होना
बुद्धिहीन होकर
जीना भी
क्या जीना
अच्छा नहीं है
कि लोग सरे आम कह
दें
जाहिल और गँवार
बुद्धिहीन होना
हमारे लिए तो
नुकसानदेह है ही
कुछ हद तक दूसरों
के लिए भी .
पर बिलकुल ही
अच्छी नहीं है
सम्वेदंनशून्य
बुद्धिमानी
बल्कि बहुत ही
खतरनाक है
मर जाना एक
बुद्धिमान की
आँखों का पानी
ऐसी बुद्धिमानी
जो
सूखकर खंखड हो
चुकी है
भावाद्र्ता के
अभाव में
ख़तरा बन सकती है
हम सब के लिए
पूरी इंसानियत के
लिए
रिश्तों के लिए
मर्यादाओं के लिए
हाँ , अच्छा तो नहीं है
बुद्धिहीन होना
पर देखकर कुछ
बुद्धिमानों को
अच्छी लगने लगती
है बुद्धिहीनता .
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
जीवन्त इतिहास ,
संभावनाशील
भविष्य
व संघर्षरत
वर्तमान
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
अनुभव का यथार्थ
सम्वेदना का कोश
स्वयं का
प्रतिबिम्ब
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
सच्ची दोस्त
और प्रेरक
सृजन के पथ की
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए तो
पुस्तकें हैं बस
स्टॉक
कन्ज्युमेबल या
नॉन कन्ज्युमेबल
( रद्दी या उपयोगी )
स्टॉक रजिस्टर के
पन्नों पर
की गई इंट्री के
सिवा
पुस्तकालयाध्यक्ष
नहीं पढ़ पाते
सम्वेदना व ज्ञान
की कोई अन्य इबारत
ताजमहल
धवल चांदनी यहाँ
कि जैसे उतर आई हो धरती पर ,
और सौंदर्य की
प्रतिमा शाश्वत ज्यों साकार हुई हो .
देवों का सारा ही
वैभव यहाँ हुआ नतमस्तक है ,
अनुपम इसके आगे
जैसे उपमानों की हार हुई हो .
यमुना के बहते जल
में जब ताजमहल की छवि पड़ती है ,
लगता है कि
दुग्ध-धवल –सी कोई अप्सरा नहां रही हो .
आकर्षण का एक जाल
जो अपने चारों ओर बुन रही ,
सम्मोहन में
बाँध-बाँध कर ह्रदय-ह्रदय को बुला रही हो .
प्रिया-वियोग से
पीड़ित होकर भग्न ह्रदय राजा ने ,
संगेमरमर पर
लिखवाई अपनी प्रेम-कहानी .
शाहजहाँ की
ह्रदय-स्वामिनी लीन यहाँ चिर-निद्रा में ,
कहते हैं की
ताजमहल है अमर प्रेम की अमर निशानी .
ताजमहल के पाहन
में मुमताज महल की यादें हैं ,
ताजमहल के पाहन
में तो शाहजहाँ का प्यार बसा है .
और कहा जाता है
यह भी ताजमहल बनवा करके ,
शाहजहाँ ने प्यार
शब्द को रूप दिया है , अर्थ दिया है .
किन्तु प्यार तो
अंतरतम के गहन –लोक में बसता है ,
स्मृतियाँ भी सदा
बसा करती हैं मन-आँगन में ,
भला प्यार का
जड़ता से क्या नाता हो सकता है ,
प्यार चेतना का
आधार रहा सदा जीवन में .
पाहन में प्यार
बसाने वाले मूर्ख हुआ करते हैं ,
शाहजहाँ भी मूर्ख
कि जिसने पाहन में प्यार बसाया है .
कौन भला कहता कि
उसने हँसी उड़ाई रंकों की ,
सच तो यह है उसने
खुद अपना मजाक उड़ाया है .
एक बादशाह जो शोषक
था समता का प्रबल विरोधी ,
यह ताजमहल उस
शोषण की अब भी दे रहा गवाही है .
भले राष्ट्र की
शान बना यह वर्षों बाद भी चमक रहा है ,
लेकिन इसके
उजलेपन के पीछे सिर्फ सियाही है .
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वर्जित फल
मैं जानता हूँ
बहिष्कृत हो
जाऊँगा
चेतना के स्वर्ग
पर क्या करूँ इस
प्रेम का
मैं आदम हूँ
पाना चाहता हूँ
तुम्हें
वर्जित फल की तरह
++++++++
पीड़ा की नदी
पीड़ा की नदी
दिल के पर्वत से
निकलकर
आँखों के समंदर
से जा मिली
और खारी हो गई .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
तुझ पर अब
विश्वास नहीं है .
कहते हैं तू
दीनबंधु है तू है दयानिधान ,
करूणानिधि तू
दयासिन्धु तू भक्तों का भगवान .
ये जो तुझको मिले
विशेषण ,मेरे लिए व्यर्थ हैं सारे .
सुनने से क्या
होता है जब अनुभव से अनजान .
या फिर मेरी पीड़ा
का
अभी तुझे आभास
नहीं है .
मेरी प्यास बुझा
न पाये सबकी प्यास बुझाने वाले ,
मुझसे प्रीत निभा
न पाये सबसे प्रीत निभाने वाले .
तू प्रियतम है
फिर प्रियतम सा नेह कहाँ है तेरे भीतर ,
मेरा प्रश्न
प्रश्न है अब तक प्रश्नों को सुलझाने वाले .
मेरी इस दुविधा
का उत्तर ,
शायद तेरे पास
नहीं है .
दीप हूँ जलता रहूंगा ,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
अश्रुपूरित नयन हर तरफ ,
और खंडित हैं मन हर तरफ |
राह अब कोई दिखती नहीं ,
है निराशा सघन हर तरफ |
आस का सम्बल लिए मैं ,
रात भर चलता रहूँगा |
दीप हूँ जलता रहूंगाकविता :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
साजिश
मेरी हत्या हो गयी
हां यह मैं कह रहा हूं
कि मेरी ह्त्या हो गयी है
यह मैं पूरे यकीन
और तथ्यों के आधार पर कह रह हूं
कि मारा गया है मुझे
बेहद निर्ममता से
तिल-तिल कर तड्पाया गया है मुझॆ
मैं गवाह हूं अपनी हत्या का
और कहीं भी , किसी को
भी
हाजिर नाजिर मानकर
दे सकता हूं गवाही
मगर मैं चुप हूं
क्योंकि मैं जानता हूं
कि हत्यारे के साथ-साथ
वे सब भी अपराधी हैं
जिन्होने प्रत्यक्ष या परोक्ष
साथ दिया है इस कॄत्य का
और अब मुझॆ य़ॆ स्वीकार करते हुये
बेहद अफ़सोस हो रहा है
कि मैं खुद शामिल था
अपनी ही हत्या की साजिश में .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
समायोजन
उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध
ऊंची आवाज में नारे लगाये ,
सभायें की , भाषण दिये
व्यवस्था को बदल डालने का आह्वान किया
लोगों में उनकी छवि बनी
वे पसन्द किये जाने लगे
उनका संघर्ष लगातार चलता रहaaak
जब-तक वे खुद
उस व्यवस्था में
समायोजित नहीं कर लिये गये
अब उनकी कमान किसी और ने संभाल ली है
+++++
कैक्टस
जिन्दगी के गांव में
उग आये हैं
कैक्टस बहुत सारे
पर नहीं है समय कि
देखे कोई , समझे कोई
या करे कोशिश समझने की
कि नहीं है आदमी पत्थर
या हमारी चेतना
नहीं है बंजर
कैक्टस शॊभा हमारे ड्राईंगरूमों की,
कृतिम उद्यानों की
पर नहीं बन सकता कभी
श्रुंगार हमारी चेतना ,
संवेदना का
अफ़सोस ! यही तो हो रहा है.
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
सापेक्षता
सापेक्षता के सापेक्ष
निरपेक्षता आकर्षक है,
सम्मोहक है
और आसान भी है निरपेक्ष होना
नहीं जुडी है क्योंकि इसके साथ
सरोकार की कोई बोझिल शर्त
संपृक्तता का बोझ लादकर चलना
आसान काम नहीं है
हर ठोकर पर गिरने का डर बना ही रहता है
संवेदना की कीमत पर मिलती है सापेक्षता .
पर कौन है जो चुकाये इतनी बडी कीमत
इसलिये आसान है निरपेक्ष होना .
++++++++
प्यार का सूत्र
प्यार में प्यार जोड़ो ,
प्यार में प्यार घटाओ ,
प्यार का प्यार से गुणा करो ,
या फिर प्यार को प्यार से भाग दे दो .
हर बार बचता सिर्फ प्यार ही है .
प्यार के गणित का आखिर ये कौन – सा सूत्र है ?
क्या आप जानते हैं ?
++++++++
डा.
दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
विष बुझी जब-जब हवायें चल पड़ीं ,
डाल से गिरने लगीं तब पत्तियां .
खूंटियों पर स्वार्थ के
लटकी हुई ,
छ्द्मवेशी आस्थायें डोलतीं
हैं .
लाभ हो या हानि लेकिन तुला
पर ,
स्वयं को संवेदनायें तोलतीं
हैं .
है समय के कक्ष में फिर से घुटन ,
बन्द सारे द्वार सारे खिड़कियां
है यहां कुछ शेष पैनापन अभी ,
सृजन की मिटती-मिटाती धार
में .
दर्द की स्मारिकायें छाप कर ,
बेचते हैं लोग अब बाज़ार में
.
खूबसूरत जिल्द से भीतर छपी ,
अर्थ अपना पूछ्ती हैं पंकितयां .
सांस लेकर कैक्टस की छांव
में ,
ज़िन्दगी अब प्रगतिवादी हो
गयी है .
किन्तु सूनापन अखरता है
बहुत ,
जैसे कोई चीज़ अपनी खो गयी
है .
बिन पढ़े ही देखिए फेंकी गयीं ,
डस्टबिन में प्यार की सब चिट्ठियां .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
मुट्ठी से फिसला समय ,
मौसम ने बदली है चाल .
हर दिन ने लिखी जो कथा ,
रात उसे बाँचती रही .
नयनों के रंगमंच पर ,
बस पीड़ा नाचती रही .
हर संध्या छोड़ गयी है ,
अनसुलझे अनगिनत सवाल .
आशाएं बाँझ हो गयीं ,
उतर गया जो भी था ज्वार .
जीवन की भाग-दौड़ में ,
कौन करे सोलह सिंगार .
दुनिया के दाँव-पेंच ने ,
कुतर दिए सपनों के जाल
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
कितना बहा
आँख का पानी मत पूछो .
विगत वर्ष की
राम कहानी मत पूछो .
किसके सपने
टूटे अपने रूठे क्यों ,
किसकी बूढ़ी
हुयी जवानी मत पूछो .
जो कुछ बीता भूलें हम तुम दोनों ही ,
बांटो आकर हर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है
नहीं रुका है
समय कभी वह सिर्फ चले .
बदल-बदल कर
रूप छला है और छले .
उसी समय के
नए रूप तुम भी तो हो ,
जिसमें
सृष्टि पली है जिसमें प्रलय पले.
तुम हो जीवन मृत्यु तुम्हीं उत्थान-पतन ,
तुम्हीं शान्ति-संघर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
यह तो मनुज
स्वभाव तृप्ति से दूर रहा .
तुम आये तो
वही पुरातन प्यास जगी .
कुछ खट्टा
कुछ मीठा होता है जीवन में ,
तुम केवल
मीठे होगे ये आस जगी .
इसी आस को नव गति दो नव संबल दो ,
हो सबका उत्कर्ष तुम्हारा स्वागत है .
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
गीत :
डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
टुकड़ा भर व्योम चाहिए ,
मुट्ठी भर धूप के लिए .
आलम्बन ढूंढती रही ,
एकाकी ज़िंदगी यहाँ .
यौवन के सभी प्रश्न पर ,
संयम का मुँह धुँआ-धुँआ .
प्यार की फुहार चाहिए
,
कुम्हलाये रूप के
लिए .
साँस-साँस लग रही
है अब ,
दंश चिर अतृप्त
प्यास का ,
स्वप्न जो उधार
ले गए ,
दे न सके ब्याज
आस का .
भावना का नीर
चाहिए ,
सूख चुके कूप के
लिए .
अनुभव के घर में
हुआ ,
अनचाही पीर का
निवास ,
और जाने कब बन गई
,
अन्तरंग,
अतिघनिष्ठ ,खास .
दृष्टि में सुधार
चाहिए ,
हर इक विद्रूप के
लिए .
गीत :
जबसे तुमको देखा
तबसे ,
कविता करना भूल
गया मैं .
उपमा से तुम परे
तुम्हारी ,
क्या दूँ मैं
उपमा .
शब्द नहीं तारीफ़
करूँ कुछ ,
करना मुझे क्षमा
.
दृग की भाषा पढ़
शब्दों की
भाषा पढ़ना भूल
गया मैं .
दृष्टि कहीं भी
डाली तो बस ,
तेरा रूप दिखा .
जब-जब कलम उठाया
मैंने ,
तेरा नाम लिखा .
ढाई आखर गढ़कर
बाकी ,
सब कुछ गढ़ना भूल
गया मैं .
तुमको चाहूँ
तुमको पाऊं ,
चाह रही मन में .
तुम मधुऋतु बनकर
आ जाओ ,
मेरे आँगन में .
लेकिन भेंट हुई
तो मन की ,
बातें कहना भूल
गया मैं .
अभिलाषाएं
निकालते हुए कभी-कभी
गूढ़ अर्थ डूब
जाने वाले
उन विचारों का
जो बने हैं पीड़ा
और
ज़ख्मों के स्थायी
मिलन से
मिल जाती है इससे
अनुभूति को
अभिव्यक्ति
ले जाने के ले
आंसुओं के उस
संसार में
जहां टूटती रहती
हैं
अभिलाषाएँ
ये अभिव्यक्ति
उदास करती है
उस ह्रदय को
जो पला-बढ़ा है
इन्हीं अभिलाषाओं
की गोद में
कब तक बनोगी तुम
अहिल्या
कि जब चाहे कोई
गौतम
बना दे तुम्हें
पत्थर
कब तक बनोगी तुम
सीता
कि जब चाहे कोई
मर्यादा परुषोत्तम
भेज दे तुम्हें वन
पथ पर
जानती हो आज के
युग में
नहीं मिलेगा
तुम्हें कोई राम और वाल्मीकि
अगर तुम चाहती हो
कि
पा सको अपनी
गरिमा
तो अब खुद जगाना
होगा
तुम्हें अपने
सामर्थ्य को
ज़िंदगी के गाँव
में अब ,
बढ़ गयी कितनी
घुटन है .
है व्यथा का कर्ज इतना ,
साँस तक गिरवी
पड़ी है .
त्रासदी सबके लिए
अब ,
एक सुरसा-सी खड़ी है .
यक्ष-प्रश्नों की तरह
अब ,
हो गया जीवन-मरण है .
भोगता संत्रास
आँखों –
में सुनहरे
स्वप्न लेकर .
पूर्ण आशा हो न
पायी ,
बन्धु सारी उम्र
देकर .
आदमी के वास्ते –
जैसे गरल का आचमन
है .
फूल भी अब लग रहे
हैं खार ,
शीत की कुछ यूँ
पड़ी है मार .
दिन हुए बौने
बहुत अब प्यार के ,
नफरतों की रात
लम्बी हो गई .
हर तरफ़ कुहरा घना
छाया हुआ ,
रोशनी जैसे तिमिर
में खो गई .
जिन्दगी को बन्द
कमरे में ,
धूप की सम्वेदना
से प्यार .
चेतना की देह में
ठिठुरन बढ़ी ,
जब सृजन की आग
ठण्डी पड़ गई .
फिर तमाचा आदमी
के गाल पर ,
स्वार्थ की पछुआ
हवा है जड़ गई .
आज के काँपते हाथ
पर ,
बन्धु कल के आगमन
का भार .
आस्था का शाल
चिथड़ा हो गया ,
फट गया स्वेटर
सहज विश्वास का .
जब पहन करके इसे
निकला समय .
सिर्फ कारण ही
बना उपहास का .
अब तो बस है शेष
नंगापन ,
हम जिसे ही मान
लें अधिकार .
खत्म समिधा हुई
सब हवन के लिए ,
देवता रुष्ट हैं
स्तवन के लिए .
सिन्धु मन्थन से
निकले रतन तो मगर .
लोग
संतुष्टि से ही रहे बेखबर .
सुर-असुर, स्वार्थ-परमार्थ का ये
समर .
चाहते सब सुधा पी
के होना अमर .
साथ अमृत के
निकला गरल क्या करें ,
कोई भी शिव नहीं
आचमन के लिए .
अश्रु ही पीर के
मात्र उपचार हैं .
अश्रु ही नैन के
श्रेष्ठ श्रृंगार हैं .
अश्रु ही दोस्त
आनन्द आधार हैं .
आँसुओं के बिना
जन्म बेकार है .
अश्रु इतना बहे
प्राण पथरा गए ,
अश्रु लाएँ कहाँ
से नयन के लिए .
अपनी संस्कृति का
होने लगा है क्षरण .
भर गया है
प्रदूषण से वातावरण .
खुश हुए ओढ़कर
पश्चिमी आवरण .
ताल सुर राग लय
सब हुए संस्मरण .
क्या है अनहद
किसी को पता भी नहीं ,
भाव भी शून्य
लगते भजन के लिए .
जिन्दगी अब हाशिए
पर आ गई है .
शब्द सारे खो
चुके हैं अर्थ अपना .
सत्य का आभास
केवल एक सपना .
सार्थकता सृष्टि
की होगी भला क्या ,
दूर जब औचित्य से
हर एक रचना .
सृजन की सम्वेदना
घबरा गई है .
लड़ रही है भावना
खुद से निरन्तर .
बढ़ गया है बुद्धि-मन के बीच अन्तर .
लग गए सन्दर्भ
रिश्तों के बदलने ,
शून्य भर ही रह
गया विश्वास घटकर .
हर जगह पर
त्रासदी ही छा गई है .
पीर की अनुभूति
को ढोने लगे हैं .
याचना के स्वर
मुखर होने लगे हैं .
फूल का अस्तित्व
संकट में पड़ा है ,
शूल केवल सबके सब
बोने लगे हैं .
नेह सिंचित हर लता मुरझा गई है .
नौ दो ग्यारह , दो-दो चार ,
आदर्शों को ठोकर
मार .
गम हो लेकिन आह न
कर .
अपनेपन की चाह न
कर .
केवल अपनी तान
सूना ,
दुनिया की परवाह
न कर .
मक्कारों की इस
दुनिया में ,
तू भी अब हो जा
मक्कार .
कैसा न्याय कहाँ
की यारी .
लाठी है तो भैंस
तुम्हारी .
लूट रहे है सभी
यहाँ पर ,
लूट मची है , लूटो भारी .
सच की कोई पूछ
नहीं है ,
करो झूठ का अब व्यापार
.
जिससे मिल बस
हंसकर मिल .
हाथ मिला पर मिला
न दिल .
धमा-चौकड़ी खूब मचा ,
जमी रहे तेरी
महफ़िल .
दुनिया की तू
हँसी उड़ा ,
रोना-गाना है बेकार .
प्यार और कुछ
नहीं ,
मौका है ठिकाना
है .
भटकन के बीच कहीं
,
ठहर-ठहर जाना है .
नींद की
प्रतीक्षा में ,
जागता बिछौना है .
प्यार वर्जनाओं
में ,
उन्मुक्त
होना है .
बिना मोल देना है
,
बिना मोल पाना है
.
याचना के हाथों
में ,
प्यार एक खजाना
है .
कहना है सुनना है
,
दिल को समझाना है
.
खुद को भूल जाने
का ,
प्यार एक बहाना
है .
अच्छा नहीं है
बुद्धिहीन होना
बुद्धिहीन होकर
जीना भी
क्या जीना
अच्छा नहीं है
कि लोग सरे आम कह
दें
जाहिल और गँवार
बुद्धिहीन होना
हमारे लिए तो
नुकसानदेह है ही
कुछ हद तक दूसरों
के लिए भी .
पर बिलकुल ही
अच्छी नहीं है
सम्वेदंनशून्य
बुद्धिमानी
बल्कि बहुत ही
खतरनाक है
मर जाना एक
बुद्धिमान की
आँखों का पानी
ऐसी बुद्धिमानी
जो
सूखकर खंखड हो
चुकी है
भावाद्र्ता के
अभाव में
ख़तरा बन सकती है
हम सब के लिए
पूरी इंसानियत के
लिए
रिश्तों के लिए
मर्यादाओं के लिए
हाँ , अच्छा तो नहीं है
बुद्धिहीन होना
पर देखकर कुछ
बुद्धिमानों को
अच्छी लगने लगती
है बुद्धिहीनता .
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
जीवन्त इतिहास ,
संभावनाशील
भविष्य
व संघर्षरत
वर्तमान
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
अनुभव का यथार्थ
सम्वेदना का कोश
स्वयं का
प्रतिबिम्ब
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए
पुस्तकें नहीं
हैं
सच्ची दोस्त
और प्रेरक
सृजन के पथ की
पुस्तकालयाध्यक्ष
के लिए तो
पुस्तकें हैं बस
स्टॉक
कन्ज्युमेबल या
नॉन कन्ज्युमेबल
( रद्दी या उपयोगी )
स्टॉक रजिस्टर के
पन्नों पर
की गई इंट्री के
सिवा
पुस्तकालयाध्यक्ष
नहीं पढ़ पाते
सम्वेदना व ज्ञान
की कोई अन्य इबारत
ताजमहल
धवल चांदनी यहाँ
कि जैसे उतर आई हो धरती पर ,
और सौंदर्य की
प्रतिमा शाश्वत ज्यों साकार हुई हो .
देवों का सारा ही
वैभव यहाँ हुआ नतमस्तक है ,
अनुपम इसके आगे
जैसे उपमानों की हार हुई हो .
यमुना के बहते जल
में जब ताजमहल की छवि पड़ती है ,
लगता है कि
दुग्ध-धवल –सी कोई अप्सरा नहां रही हो .
आकर्षण का एक जाल
जो अपने चारों ओर बुन रही ,
सम्मोहन में
बाँध-बाँध कर ह्रदय-ह्रदय को बुला रही हो .
प्रिया-वियोग से
पीड़ित होकर भग्न ह्रदय राजा ने ,
संगेमरमर पर
लिखवाई अपनी प्रेम-कहानी .
शाहजहाँ की
ह्रदय-स्वामिनी लीन यहाँ चिर-निद्रा में ,
कहते हैं की
ताजमहल है अमर प्रेम की अमर निशानी .
ताजमहल के पाहन
में मुमताज महल की यादें हैं ,
ताजमहल के पाहन
में तो शाहजहाँ का प्यार बसा है .
और कहा जाता है
यह भी ताजमहल बनवा करके ,
शाहजहाँ ने प्यार
शब्द को रूप दिया है , अर्थ दिया है .
किन्तु प्यार तो
अंतरतम के गहन –लोक में बसता है ,
स्मृतियाँ भी सदा
बसा करती हैं मन-आँगन में ,
भला प्यार का
जड़ता से क्या नाता हो सकता है ,
प्यार चेतना का
आधार रहा सदा जीवन में .
पाहन में प्यार
बसाने वाले मूर्ख हुआ करते हैं ,
शाहजहाँ भी मूर्ख
कि जिसने पाहन में प्यार बसाया है .
कौन भला कहता कि
उसने हँसी उड़ाई रंकों की ,
सच तो यह है उसने
खुद अपना मजाक उड़ाया है .
एक बादशाह जो शोषक
था समता का प्रबल विरोधी ,
यह ताजमहल उस
शोषण की अब भी दे रहा गवाही है .
भले राष्ट्र की
शान बना यह वर्षों बाद भी चमक रहा है ,
लेकिन इसके
उजलेपन के पीछे सिर्फ सियाही है .
कवितायें :
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वर्जित फल
मैं जानता हूँ
बहिष्कृत हो
जाऊँगा
चेतना के स्वर्ग
पर क्या करूँ इस
प्रेम का
मैं आदम हूँ
पाना चाहता हूँ
तुम्हें
वर्जित फल की तरह
++++++++
पीड़ा की नदी
पीड़ा की नदी
दिल के पर्वत से
निकलकर
आँखों के समंदर
से जा मिली
और खारी हो गई .
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ , उ .प्र .
मोबाइल -09559304131
तुझ पर अब
विश्वास नहीं है .
कहते हैं तू
दीनबंधु है तू है दयानिधान ,
करूणानिधि तू
दयासिन्धु तू भक्तों का भगवान .
ये जो तुझको मिले
विशेषण ,मेरे लिए व्यर्थ हैं सारे .
सुनने से क्या
होता है जब अनुभव से अनजान .
या फिर मेरी पीड़ा
का
अभी तुझे आभास
नहीं है .
मेरी प्यास बुझा
न पाये सबकी प्यास बुझाने वाले ,
मुझसे प्रीत निभा
न पाये सबसे प्रीत निभाने वाले .
तू प्रियतम है
फिर प्रियतम सा नेह कहाँ है तेरे भीतर ,
मेरा प्रश्न
प्रश्न है अब तक प्रश्नों को सुलझाने वाले .
मेरी इस दुविधा
का उत्तर ,
शायद तेरे पास
नहीं है .
दीप हूँ जलता रहूंगा ,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
अश्रुपूरित नयन हर तरफ ,
और खंडित हैं मन हर तरफ |
राह अब कोई दिखती नहीं ,
है निराशा सघन हर तरफ |
आस का सम्बल लिए मैं ,
रात भर चलता रहूँगा |
दीप हूँ जलता रहूंगा ,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
रोशनी की नहीं खान हूँ ,
दोस्तो मैं न दिनमान हूँ |
मैं हूँ लघु पर निरर्थक नहीं ,
डूबते को मैं जलयान हूँ |
अपनी सीमा भर उजाला ,
अंत तक करता रहूँगा |
दीप हूँ जलता रहूंगा ,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
नागसेन , पंचायत
राज , अमर जगत , कहना मान , दस्तक , ऋषिभूमि , नागरी स्मारिका , सजल टाइम्स , ब्रज
कुमुदेश , अवध अर्चना , निर्दलीय , अंचल भारती , ब्रम्ह्वचन , भावार्पण , प्रिय
संपादक , शुभतारिका .,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
रोशनी की नहीं खान हूँ ,
दोस्तो मैं न दिनमान हूँ |
मैं हूँ लघु पर निरर्थक नहीं ,
डूबते को मैं जलयान हूँ |
अपनी सीमा भर उजाला ,
अंत तक करता रहूँगा |
दीप हूँ जलता रहूंगा ,
तिमिर से लड़ता रहूंगा |
नागसेन , पंचायत
राज , अमर जगत , कहना मान , दस्तक , ऋषिभूमि , नागरी स्मारिका , सजल टाइम्स , ब्रज
कुमुदेश , अवध अर्चना , निर्दलीय , अंचल भारती , ब्रम्ह्वचन , भावार्पण , प्रिय
संपादक , शुभतारिका .