प्रबंधन का अर्थ है उपलब्ध संसाधनों का दक्षतापूर्वक एवं
प्रभावपूर्ण तरीके से उपयोग करते हुए लोगो के कार्यों में समन्वय करना ताकि
लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सके | प्रबंधन के अंतर्गत योजना-निर्माण
(planning) , संगठन-निर्माण (organizing) , स्टाफिंग (staffing) , नेतृत्व करना (leading) तथा नियंत्रण करना आदि आते हैं | प्रबंधन इसलिए आवश्यक है कि
व्यक्ति सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति में अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सके | प्रबंधन के उद्देश्य किसी भी
क्रिया के अपेक्षित परिणाम होते हैं |
शैक्षिक जगत में एक शिक्षक को भी अपनी कक्षा का प्रभावी एवं
दक्षतापूर्ण प्रबंधन करना होता है | उसे विद्यार्थियों के क्रिया-कलाप एवं गतिविधियों में समन्वय स्थापित करना
होता है ताकि विद्यार्थी अधिकाधिक अधिगम के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें | शिक्षक को अपने ज्ञान और कौशल का
समुचित प्रयोग करना पड़ता है |
कक्षा का प्रबंधन करना शिक्षक के लिए चुनौती भरा कार्य है | शिक्षक का प्राथमिक उद्देश्य
विद्यार्थी का पूर्ण विकास करना है | पूर्ण विकास तभी संभव है जब शिक्षक अपने प्रबंधन द्वारा विद्यार्थियों का
ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकेगा | आज के दौर में विद्यार्थियों का एकाग्रचित होना कक्षा में ही नहीं जीवन में
भी कठिन होता जा रहा है | कक्षा में विद्यार्थियों को अच्छे नतीजे प्राप्त करने , उनके व्यक्तित्व में सकारात्मक
बदलाव लाने , पठन-पाठन के प्रति उनकी रुचि
जागृत करने के लिए शिक्षक को कक्षा-प्रबंधन के उपाय अपनाने चाहिए | अपने अब तक के अध्यापकीय अनुभव के
आधार पर बेहतरीन कक्षा-प्रबंधन हेतु मैं
कुछ सुझाव आपके सामने रख रहा हूँ –
(1)
शिक्षक को कक्षा
में एक ही जगह पर स्थिर होकर अध्यापन नहीं करना चाहिए | जिस प्रकार एक रंगकर्मी पूरे
स्टेज का भरपूर इस्तेमाल करता है , उसी तरह कक्षा भी एक शिक्षक के लिए रंगमंच से कम नहीं है और कक्षा को जीवन
बनाने के लिए उसे गति करते रहना चाहिए | यूँ भी जब गतिविधि आधारित (activity based) शिक्षण होगा , विद्यार्थियों से अधिकाधिक संवाद होगा तो एक ही स्थान पर खड़े रहना संभव नहीं
है | कक्षा में गति करते रहने से समस्त
विद्यार्थियों की गतिविधियों पर न केवल नज़र रहेगी बल्कि कक्षा को नियंत्रित करने
में आसानी होगी |
(2)
कुछ शिक्षक कक्षा
में प्रवेश करते ही सीधे अध्यापन शुरू कर देते हैं | यह गलत तरीका है | कक्षा में जाने पर सबसे पहले
ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड पर दिनांक , विषय , पाठ का शीर्षक इत्यादि लिखना
चाहिए | इससे विद्यार्थी पिछले कालांश की
मनःस्थिति से बाहर आकार आपके विषय पर केन्द्रित हो जाते हैं | ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड पर लिखा गया पाठ का
नाम उन्हें मानसिक रूप से उस पाठ को पढ़ने के लिए तैयार कर देता है | ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड अधिगम की प्रक्रिया
का सबसे महत्त्वपूर्ण औज़ार है | शिक्षण में प्रयुक्त सहायक सामग्रियों में ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड प्रमुख व अनिवार्य
है | शिक्षण के दौरान ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड का अधिकाधिक प्रयोग
होना चाहिए | (ब्लैक बोर्ड /व्हाइट बोर्ड/डिजिटल बोर्ड के महत्त्व पर अलग से एक अध्याय में विस्तार से
चर्चा की गई है| )
(3)
विद्यार्थियों को
यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे शिक्षण के दौरान बताए गए महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं
तथा ब्लैक बोर्ड / व्हाइट बोर्ड पर
लिखी गई सामग्री को अपनी नोटबुक में उतारते रहें | शिक्षक को अध्यापन के दौरान कक्षा
में घूमते हुए इस बात पर नज़र रखनी चाहिए कि सभी विद्यार्थी इस निर्देश का पालन कर
रहे हैं या नहीं | शिक्षक
सुनिश्चित करें कि सभी विद्यार्थी बताई गई बातों को नोटबुक में नोट करते जा रहे
हैं |
(4)
शिक्षण को रुचिकर , सरल बनाने के लिए ज़रूरी है कि
अधिकाधिक सहायक सामग्रियों (teaching aids) का इस्तेमाल हो | पढ़ने में विद्यार्थियों की रुचि जगाने के लिए सहायक सामग्रियों का प्रयोग
बहुत उपयोगी है | सहायक सामग्री
अध्यापक के लिए प्रकरण को अधिक स्पष्ट करके पढ़ाने में सहायक होते हैं | विद्यार्थी भी आसानी से प्रकरण को
समझ पाते हैं | चार्ट , नक्शा , ग्लोब , पीरियादिक टेबल आदि विषयानुरूप
तरह-तरह की सहायक सामग्रियों का प्रयोग शिक्षक करते हैं | कुछ सहायक सामग्रियाँ बाज़ार में
आसानी से उपलब्ध होती हैं , कुछ की व्यवस्था शिक्षक को अपने स्तर से करनी पड़ती है | आजकल कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड आ
गए हैं जिनमें इन्टरनेट के माध्यम से सहायक सामग्रियों अपार भंडार मौजूद है | (सहायक सामग्री पर अलग से
विस्तारपूर्वक एक अध्याय में चर्चा की गई है )
(5)
शिक्षण कोई एकरेखीय
(linear) प्रक्रिया नहीं है | विद्यार्थी शिक्षण-प्रक्रिया का
केंद्र है | इसीलिए सभी शिक्षाविद मानते हैं
कि शिक्षण को अध्यापक केन्द्रित न होकर विद्यार्थी केन्द्रित होना चाहिए | ज्ञान विद्यार्थियों पर बाहर से
थोपा गया न होकर , उनके भीतर से
विकसित हो , विद्यार्थी केन्द्रित शिक्षा का
यही उद्देश्य है | इसके लिए ज़रूरी
है कि शिक्षण-प्रक्रिया में विद्यार्थियों की सर्वाधिक सहभागिता हो | उनकी उत्सुकता को प्रेरित किया
जाये , उन्हें प्रश्न पूछने के लिए
प्रोत्साहित किया जाये तथा शिक्षक भी उनसे सवाल पूछें और विद्यार्थियों के जवाब के
माध्यम से ही पाठ को आगे बढ़ाएँ | यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि अध्यापक कक्षा के कुछ कुशाग्र या सिर्फ
अग्रिम पंक्ति के विद्यार्थियों से ही प्रश्न न पूछें बल्कि कक्षा के सभी
विद्यार्थियों से प्रश्न पूछें | फिर चाहे वह अग्रिम पंक्ति में बैठा विद्यार्थी हो या पीछे बैठा हुआ
विद्यार्थी , वह कुशाग्र विद्यार्थी हो या
सपोरटिव लर्नर , बालक हो या बालिका | इससे विद्यार्थियों का कोई भी
वर्ग अपने को उपेक्षित महसूस नहीं करेगा | शिक्षण-प्रक्रिया में सहभागी बनने
से पढ़ने के प्रति उनकी रुचि तथा एकाग्रता का विकास होगा |
(6)
कक्षा में इस बात
का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अध्यापक प्रत्येक विद्यार्थी को हमेशा उसके नाम से
संबोधित करें ना कि ‘ओए’ या ‘सुन’ कहकर | विद्यार्थी को किसी भी निकनेम या
उपहासात्मक विशेषण से भी संबोधित नहीं करना चाहिए | इससे विद्यार्थी स्वयं को अपमानित
महसूस करता है | वहीं जब उसका नाम लेकर उससे कोई
प्रश्न पूछा जाता है तो उसमें सजगता आती है और वह शिक्षक की बातों को ग़ौर से सुनना
शुरू आकर देता है |
(7)
माध्यमिक स्तर के
विद्यार्थी अधिकांशतः किशोर वयः के होते हैं , जिनमें भावनात्मक संवेग बहुत
ज़्यादा होता है | इस उम्र में
छोटी-छोटी बातों से उनके मन में स्थायी ग्रंथि बन जाने का खतरा ज़्यादा रहता है जो
उनके पूरे व्यक्तित्व को प्रभाविता कर सकता है | अतः ज़रूरी है कि कक्षा में बच्चे
को अपमानित न करें , उससे अनर्गल बात
न करें , न ही उसकी किसी अन्य बच्चे से
तुलना करें | यह कहकर बच्चे को अपमानित न करें
कि तुम्हें कुछ नहीं आता , तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकते ....... बल्कि उन्हें विश्वास दिलाइए कि वे
सभी इस कक्षा का अभिन्न अंग हैं | उन्हें यह कहकर शर्मिंदा न करें कि तुम क्लास को डिस्टार्ब कर रहे हो या ज़रा
पढ़ाई पर ध्यान दो | बच्चे की किसी
भी ग़लती के लिए उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने की बजाय बेहतर होगा उससे अकेले
में बात की जाये , उसकी समस्या को
जाना जाये और उसकी काउंसिलिंग की जाये |
(8)
हमारा देश
विविधताओं का एक गुलदस्ता है जिसमें तरह-त्राह के फूल अपनी खुशबू बिखेर रहे हैं | यही वैविध्य हमारे देश की
खूबसूरती है | विडम्बना यह है कि इसी वैविध्य के
चलते हमारा समाज धर्म , जाति , संप्रदाय , भाषा , क्षेत्र , लिंग , रंग आदि के आधार पर आपस में बंटा
हुआ है और श्रेष्ठताबोध या हीनताबोध की ग्रंथि पाले हुये है | ये ग्रंथियाँ भेदभाव , नफ़रत , द्वेष , ईर्ष्या को बढ़ाती हैं और सद्भाव
का ह्रास करती हैं | यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे कुछ शिक्षक साथी भी इन ग्रंथियों से अछूते नहीं हैं | एक शिक्षक के रूप में हमारा
कर्तव्य है कि हम विद्यार्थियों के मन में सभी को समान समझते हुये मानवीय मूल्यों
के प्रति प्रेम जगाएँ और उनमें भाषा , धर्म , जाति , रंग , लिंग , संप्रदाय के आधार पर किसी प्रकार
का भेदभाव न पनपने दें | यदि शिक्षक खुद इन ग्रंथियों से
ग्रस्त होगा तो विद्यार्थियों को इनसे मुक्त क़ैसे रख सकता है | इन ग्रंथियों के कारण ही शिक्षक
विद्यार्थियों से समान व्यवहार नहीं कर पाएगा और अपनी कटुता को किसी न किसी तरह
अभिव्यक्त करता रहेगा | इस तरह के कई किस्से हम आए दिन मीडिया में पढ़ते , देखते रहते हैं | कटुता और विद्वेष को झेल रहे
विद्यार्थी में भी कटुता और नफरत ही पनपेगी | यह इतना आसान तो नहीं किन्तु
अध्यापकीय गरिमा इसी में निहित है कि अध्यापक इन ग्रंथियों से मुक्त रहे |
अब सवाल यह है कि इस बात की
कक्षा-प्रबंधन में क्या भूमिका है ? मैं अध्यापक द्वारा कक्षा में किए गए व्यवहार को भी कक्षा-प्रबंधन का हिस्सा
मानता हूँ इसलिए यहाँ मैं अपने शिक्षक साथियों से बहुत विनम्र अनुरोध करना चाहूँगा
कि उन्हें अपनी कक्षाओं में धर्म , जाति , संप्रदाय , भाषा , क्षेत्र , लिंग , रंग आदि के आधार पर किसी भी तरह
की टिप्पणी करने से बचना चाहिए | किसी भी एक वर्ग , समुदाय को श्रेष्ठ बताने वाले या
किसी वर्ग , समुदाय को नीचा दिखाने वाले
वक्तव्य का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए | कई बार अध्यापक मज़ाक-मज़ाक में ही लड़के और लड़कियों में तुलना करके अंजाने ही
लैंगिक विभेद (gender
discrimination) कर
बैठते हैं | इसी तरह किसी विद्यार्थी के
मोटे-पतले , गोरे-काले होने पर या किसी
शारीरिक , मानसिक विकृति होने पर शिक्षक
द्वारा की गयी उपहासात्मक टिप्पणी उस विद्यार्थी को आहत कर सकती है | कहना न होगा कि कुछ शिक्षक कक्षा
में घृणा से भारी जातीय टिप्पणियाँ करते भी पाये गए हैं | ऐसी बातें विद्यार्थी के कोमल मन
पर कितना गहरा घाव करती हैं इसका अंदाज़ा हमें होना चाहिए | यह स्वाभाविक है कि हम जिस वर्ग
या समुदाय से होते हैं हमारा झुकाव उस वर्ग या समुदाय की ओर ज्यादा होता है लेकिन
इसका मतलब यह कतई नहीं है हम अन्य वर्ग या समुदाय के लोगो को हेय समझें और उनके
साथ असमान व्यवहार करें | शिक्षक को यह बात भली भांति समझ लेना चाहिए | शिक्षक को कक्षा में अपनी वाणी को
संयमित और गरिमापूर्ण रखना ही होगा |
(9)
इसी सिलसिले में
अध्यापक की वाणी से संबन्धित एक सुझाव यह भी है कि उसे कक्षा में अभद्र , अश्लील शब्दों व गाली-गलौज के
इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए यहाँ तक कि हास्य-विनोद में भी सड़क छाप भाषा , निम्न स्तरीय चुटकुलों , पुरानी दक़ियानूसी संकीर्ण सोच से
भरी कहावतों का प्रयोग नहीं करना चाहिए | इस बाबत तब और सजगता बरतनी चाहिए जब विद्यालय में सहशिक्षा(coeducation) हो और कक्षा में बालिकायेँ भी
उपस्थित हों |
(10)
एक विद्यार्थी सिर्फ औपचारिक शिक्षा ही ग्रहण नहीं करता
बल्कि अनौपचारिक रूप से भी अपने शिक्षकों से हर समय कुछ न कुछ सीखता रहता है | शिक्षक का कार्य-व्यवहार , आचरण , चलना-फिरना , बोलना-बात करना , तौर-तरीका , वेषभूषा सब कुछ विद्यार्थी देखता , निरीक्षण करता है और उसके मन पर
इसका गहरा प्रभाव पड़ता है | विद्यार्थी शिक्षक की नकल करते हैं | अतः कक्षा मेन शिक्षक की वेषभूषा
सुव्यवस्थित होनी चाहिए | साफ-सुथरे कपड़े , कमीज़ इन की हुई , सँवरे बाल और पैरों में जूता होना
चाहिए | भद्दे दिखने वाले , चुस्त , अश्लील कपड़े पहनकर कक्षा में नहीं
जाना चाहिए | आशय यह है कि अध्यापक को बहुत
कैजुअल तरीके से कक्षा में प्रवेश करने से बचना चाहिए | आप भी सोच रहे होंगे कि कपड़ा
वगैरह तो निजी पसंद का विषय है , इसका अध्यापन से क्या लेना-देना ? कोई कैसे भी कपड़े पहने इससे किसी को आपत्ति क्यों हो सकती है ? मेरा उद्देश्य किसी की निजी पसंद
की स्वतन्त्रता का हनन करना नहीं है | किन्तु कार्य-क्षेत्र पर , जहां सैकड़ों दृष्टियाँ आपका निरीक्षण करती हैं और आपका अनुसरण करती है , वहाँ औपचारिक वेषभूषा में जाना ही
ठीक है | अपने घर पर आप कुछ भी पहनने के
लिए स्वतंत्र हैं |
औपचारिक वेषभूषा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव आपकी कार्यक्षमता
पर पड़ता है | आप कल्पना कर सकते हैं चप्पल फ़हम
कर किसी फौजी को परेड करते हुए ? नहीं न ! बिना बूट पहने परेड करते
हुए फौजी में चुस्ती-फुर्ती दिखाई ही नहीं पड़ेगी | अनौपचारिक वेश-भूषा आपको आराम और
रिलैक्स फील कराती है पर इसके साथ ही आपके काम में भी आराम व रिलैक्सनेस आ जाता है
| आप अपने आप को ढीला-ढाला व आलस्य
से भरा महसूस करने लगते हैं | ठीक इसके विपरीत औपचारिक वेषभूषा में आप अपने आप को फुरतीला व सक्रिय महसूस
करेंगे | विद्यार्थी का गणवेश (uniform) भी एक औपचारिक वेश-भूषा है , जिसे पहनकर वह स्कूल में सक्रिय
बना रहता है | अब जब विद्यार्थी अध्यापक को
अनौपचारिक वेश-भूषा में देखेगा तो उसका अपना मन भी रिलैक्स होने को करेगा | वह भी अपनी इन शर्ट को बाहर निकाल
लेगा और कैजुअल हो जाएगा | मतलब यह कि अध्यापक खुद की सक्रियता को तो प्रभावित करेगा ही धीरे-धीरे उसे
देखकर विद्यार्थी की सक्रियता भी घाट जाएगी | औपचारिक वेश-भूषा से
कार्य-क्षेत्र में काम करने व सक्रिय बने रहने का माहौल बना रहता है |
(11)
जैसा कि पहले चर्चा कर चुका हूँ कि विद्यार्थी अध्यापक से
सिर्फ विषय का ज्ञान ही नहीं लेता बल्कि उनके आचरण-व्यवहार से भी सीखता है | इसलिए शिक्षक को पान , मसाला , गुटखा , बीड़ी , सिगरेट , खैनी , तंबाकू , शराब आदि किसी भी तरह का नशा नहीं
करना चाहिए | यह बताने की आवश्यकता नहीं कि नशा
शारीरिक व मानसिक दोनों तरह से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है | यहाँ तक कि नशे की हालत में
व्यक्ति सामाजिक-स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाता है | शिक्षक को हमारा समाज एक आदर्श की
तरह देखता है | अतः शिक्षक से अपेक्षा की जाती है कि उसका आचरण , उसकी आदतें मर्यादापूर्ण हों | यूँ तो नशा करना ही नहीं चाहिए
किन्तु यदि आपको नशे की लत लग गई है और आप इसे छोड़ नहीं पा रहे हैं तो यह आपका
निजी मामला है | कानून के दायरे में रहकर आप अपने
घर पर कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं फिर वह नशा ही क्यों न हो | किन्तु विद्यालय विद्या का मंदिर
है वहाँ की शुचिता को नष्ट करने का अधिकार किसी को नहीं है | अतः स्पष्ट तौर पर शिक्षक का
विद्यालय परिसर में नशा करना वर्जित है | भारत सरकार का सीसीएस कंडक्ट रूल भी इसकी मनाही करता है और इसे दंडनीय अपराध
मानता है |
नशा करके कक्षा में जाना तो बिलकुल अक्षम्य है | कुछ शिक्षक पान , गुटखा , खैनी खाकर कक्षा में चले जाते हैं
, उनके लिए ईश्वर से यही प्रार्थना
है कि ईश्वर उंकेन सदविवेक दें | विद्यार्थियों के सम्मुख नशा करने वाला शिक्षक परोक्षतः विद्यार्थियों को भी
नशे की लत के लिए प्रेरित कर रहा होता है | अध्यापक की इन आदतों को हर
विद्यार्थी भले न सीखे पर विद्यार्थी के मन में अध्यापक के लिए सम्मान तो ज़रूर
घटता है |
उपरोक्त बिन्दु कक्षा-प्रबंधन का हिस्सा तो हैं ही मैं
इन्हें अध्यापक-संहिता (teacher-manual) भी मानता हूँ | ये शिक्षक-जीवन का वो संविधान है जिसका पालन करके एक शिक्षक अपने शिक्षकीय
दायित्व से खुद संतुष्ट हो सकता है और अपने विद्यार्थियों को भी संतुष्ट कर सकता
है |
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