रविवार, 25 सितंबर 2011

बन न सकीं इतिहास पतंगें .


छू लेतीं आकाश पतंगें ,

फिर भी रहतीं पास पतंगें .

पंख लगे पैरों को देतीं ,

उड़ने का विश्वास पतंगें .

छत पर धूम मचाते बच्चों -

की निश्छल परिहास पतंगें .

कटने से जो डर कर बैठीं ,

बन न सकीं इतिहास पतंगें .

चाहा जिधर घुमाया उसने ,

हैं डोरी की दास पतंगें .

नीली-पीली, रंग-बिरंगी ,

बचपन की मधुमास पतंगें .

जीवन की अंतिम सच्चाई -

का देतीं आभास पतंगें .

---डा. दिनेश त्रिपाठी 'शम्स'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें