सोमवार, 12 सितंबर 2011

संदली जवानी है .

फागुनी जवानी है ,सावनी जवानी है ,
वक़्त के गुलिस्तां की इक कली जवानी है .
सांस-सांस महकी है,अंग-अंग महका है ,
मन में बस गयी खुशबू, संदली जवानी है .
जो भी उतरा डूबा है तेज धार में इसकी ,
तोड़ कर किनारों को जब बही जवानी है .
दिन का चैन रातों की नींद जिसने छीनी है ,
बेरहम सितमगर-सी लग रही जवानी है .
सो गयी है जब बेसुध ज़िंदगी के बिस्तर पर,
वक़्त के अंधेरों में खो गयी जवानी है .
दुश्मनों पे झपटी है आग की लहर बनकर ,
जो वतन के काम आयी बस वही जवानी है .
डा.दिनेश शम्स

1 टिप्पणी:

  1. आचार्यवर,
    आज तो आपने जवानी के इतने जलवे दिखा दिए कि अपने वृद्ध होने पर थोड़ी शर्मिंदगी महसोस हो रही है.. लेकिन बड़ी मौज में लिखी हुई कविता है!!
    सलिल वर्मा

    जवाब देंहटाएं