शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

ग़ज़ल

एक लम्हा गुजार कर आये ,
या कि सदियों को पार कर आये .
जीत के सब थे दावेदार मगर ,
एक हम थे कि हारकर आये .
आईने सब खिलाफ़ थे लेकिन ,
पत्थरों से क़रार कर आये .
ज़िन्दगी एक तुझसे निभ जाये ,
खुद से धोखे हज़ार कर आये .
आज़ ही हम बज़ार में पहुंचे ,   
आज ही हम उधार कर आये .
अपने दामन को खुद रफ़ू करके ,
खुद की फिर तार-तार कर आये .
तेरी महफ़िल में ‘शम्स’ जो आये ,
ग़म की चादर उतार कर आये .

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