शनिवार, 6 अगस्त 2011

बिन पढ़े ही देखिए फेंकी गयीं ,


विष बुझी जब-जब हवायें चल पड़ीं ,
डाल से गिरने लगीं तब पत्तियां .
खूंटियों पर स्वार्थ के लटकी हुई ,
छ्द्मवेशी आस्थायें डोलतीं हैं .
लाभ हो या हानि लेकिन तुला पर ,
स्वयं को संवेदनायें तोलतीं हैं .
है समय के कक्ष में फिर से घुटन ,
बन्द सारे द्वार सारे खिड़कियां
है यहां कुछ शेष पैनापन अभी ,
सृजन की मिटती-मिटाती धार में .
दर्द की स्मारिकायें छाप कर ,
बेचते हैं लोग अब बाज़ार में .
खूबसूरत जिल्द से भीतर छपी ,
अर्थ अपना पूछ्ती हैं पंकितयां .
सांस लेकर कैक्टस की छांव में ,
ज़िन्दगी अब प्रगतिवादी हो गयी है .
किन्तु सूनापन अखरता है बहुत ,
जैसे कोई चीज़ अपनी खो गयी है .
बिन पढ़े ही देखिए फेंकी गयीं ,
डस्टबिन में प्यार की सब चिट्ठियां ..
डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’
 
 
 
 

1 टिप्पणी:

  1. आचार्य जी!
    आपके गीतों को पढने के बाद अपने बौनेपन का एहसास होता है.. आज की वर्त्तमान स्थिति पर आपका आक्रोश साफ़ झलकता है!! अब लगा रहेगा आना जाना!!
    ये वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें!!

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